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उड़कर नभ तक रेत जली / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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,
24 फ़रवरी
<poem>
उड़कर नभ तक रेत जली।
तब मरु पर बरसी बदली।
वेग हुआ जब
-
जब
ज्यादा
ज़्यादा
,तब
-
तब हुई नदी छिछली।
देखी सोने की चिड़िया,
कोषों की तबियत मचली।
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