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ज़ुबाँ ज़बाँ मिली पर कभी नहीं कुछ कहता है जूता।
इसीलिए पैरों के नीचे रहता है जूता।
कुछ दिन में विरोध इसका मर जाता कुछ दिन में इसीलिए,जीवन भर आका आक़ा की लातें सहता है जूता।
पाँवों की रक्षा करते -करते फट जाता, पर,
आजीवन घर के बाहर ही रहता है जूता।
वफ़ादार कितना भी हो भूल वफ़ादारी इसकी सब देते फेंक इसे,
बूढ़ा होकर जब मुँह से कुछ कहता है जूता।
नाले के गंदे पानी में बहता है जूता।
कैसे लिख दूँ शे’र आख़िरी जूते के हक हक़ में,जीवन भर हर हक हक़ से वंचित रहता है जूता।
</poem>
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