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07:29, 28 फ़रवरी 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रवि ज़िया
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<poem>
रिश्तों को टूटने से बचाया न जा सका
लेकिन ये सच ज़बान पे लाया न जा सका
गुज़री तमाम उम्र उसी की पनाह में
इक घर जो असलियत में बनाया न जा सका
ख़ामोश पत्थरों की सदाएँ अजीब थी
तेशा फिर उस के बाद उठाया न जा सका
कहने को हम भी शहर में आबाद हो गये
इक दश्त फिर भी दिल से भुलाया न जा सका
अहदे-सफ़र में वक़्त बहुत महरबाँ रहा
अफ़सोस तेरे साथ बिताया न जा सका
कोई समझ न पाया 'ज़िया' तिश्नगी तेरी
वो प्यास क्या थी जिस को बुझाया न जा सका
</poem>