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10 मार्च {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कमलेश
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|संग्रह=
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<poem>
मैं बड़ा हो रहा था ।
पाठशाला जाने लगा था ।
मैं सौरी की ओर
देखता था बार-बार,
माँ कई दिनों से वहीं थी,
खाट पर लेटी ।
पैंताने खड़ी थी नायन ।
मैं उस कोठरी की ओर
देखता था बार-बार
मालूम था मुझे
एक भाई या बहिन....
</poem>