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15:21, 20 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कुमार रवींद्र
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<Poem>
इसी गली के
आख़िर में है
एक लखौरी ईंटों का घर
किस पुरखे ने था बनवाया
दादी को भी पता नहीं है
बसा रहा
अब उजड़ रहा है
इसमें इसकी ख़ता नहीं है
एक-एक कर
लड़के सारे
निकल गए हैं इससे बाहर
बड़के की नौकरी बड़ी थी
उसे मिली कोठी सरकारी
पता नहीं कितने सेठों ने
उसकी है आरती उतारी
नदी-पार की
कालोनी में
कोठी बनी नई है सुंदर
मँझले-छुटके ने भी
देखादेखी
बाहर फ्लैट ले लिए
दादी-बाबा हैं जब तक
तब तक ही
घर में जलेंगे दिये
पीपल है
आंगन में
उस पर भी रहता है अब तो पतझर ।
</poem>