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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
लग रहा ईमान की बातों में हमको डर
कौन ग़ज़लें अब कहेगा कुहरे के ऊपर

बोर्ड पर लिक्खा इलाहाबाद ग़ायब था
पर अभी भी थी वहाँ वह तोड़ती पत्थर

ख़तरे जब अभिव्यक्तियों के सामने होंगे
मुक्तिबोधों के प्रखर हो जाएँगे अक्षर

गाँव की बड़की बहुरिया हो गई बेबस
आज शहरी हो गया हरगोबिनों का स्वर

फिल्मी कैरेक्टर हुए हैं इस तरह हावी
एक ‘लहनासिंह’ भी है अब खोजना दुष्कर

गिर रही-सी इस सियासत को सँभालेगा
जब कभी साहित्य में जग जाएगा दिनकर

बादलों को जब कभी घिरते हुए देखा
एक ‘नागार्जुन’ मुझे दिखने लगा भीतर
</poem>
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