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<poem>
इस हृदय की देहरी सूनी पड़ी है
बिन तुम्हारे कौन संझा दीप बारे

सिलवटों के मौन अब
कितने मुखर हैं
कौन तुम बिन पर इन्हें आकर सुनेगा
ले रही हैं चेतनाएँ
भी उबासी
कौन इनको कामना के पुष्प देगा

तोड़कर प्रतिबंध अब अनहोनियों का
कौन आशंकित विचारों को बुहारे

तोड़ अन्विति नेह से
कब तक जिएँगे
प्राण भी नवप्राण पाना चाहते हैं
जूट में अभिलाष
हरसिंगार बनकर
नेह-चूड़ामणि सजाना चाहते हैं

वेदनाएँ, वेद की बनकर रिचाएँ
कर रहीं अर्पित तुम्हें अधिकार सारे

यह सकल जीवन नहीं है
द्यूत जिसपर
हार जाएँ हम प्रणय की आस्थाएँ
हम नहीं अध्याय वो
जो शेष होकर
बाँचते जाएँ सतत अंतरकथाएँ

प्रेम गीता-सार बन सम्मुख खड़ा है
क्यों नहीं फिर बढ़ रहे हैं पग तुम्हारे
</poem>
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