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मौनता की भाषा यदि होती..मृदुल -सहज व सरल
द्रुमदल न होते अभिशप्त..आ:! न होता अंत वन का
न स्रोतवती होती शुष्क,न मेघों में होता अम्लीय जल
न होता अज्ञात अभ्र में लुप्त एक पक्षी.. मृत मन का।
 
न होती यक्ष-पृच्छा..न मिथ्या विवाद की धूमित ध्वनि
न कोई करता अनुसरण सदा अस्तमित सूर्य का कभी
न पूर्व न पश्चिम न उदीची से.. प्रत्ययी पवन की अवनि
न होती नैराश्य-बद्ध..निगीर्ण ग्लानि में रहते यूँ..सभी।
 
यह जन्म उसी प्राचीन इतिहास का है एक भग्नावशेष
निरुत्तर निर्मात्री..पुरुष-इच्छा की स्त्री.. मौन-मध्याह्न
स्वर में नीरव अध्वर..शून्य भुजाओं में अंतिम आश्लेष
प्रतिक्षण ध्वस्त होते इसके कण-कण,हैं अर्ध अपराह्न।
 
यदि हुई अभिषिक्त यह उर्वि..यदि हुआ नादित अंभोधर
प्रतिगुंजित होगा अंतरिक्ष में तब अविजित स्त्री का स्वर।
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