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19 जून {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राहुल शिवाय
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<poem>
मेरे मन से पूछो
तो वह बतलाएगा
प्यार तुम्हारा कैसे है सागर से गहरा
मेरे मन ने जब भी
हरकारे भेजे हैं
तुमने उनका सदा किया नेहिल अभिनंदन
माटी की यह देह
सुवासित रही हमेशा
तुमने इसको सौंप दिया अपना तन-चंदन
मेरी यात्रा
तुमतक जाने भर की ही थी
मन मेरा गतिहीन उसी पथ पर है ठहरा
मेरी राहों के हर दिन
व्यवधान बुहारे
हृदय पटल पर मधुमय स्वप्न सजाए हर दिन
केन्द्र, व्यास के साथ परिधि
की गढ़ी भूमिका
डिगी नहीं अपने कर्तव्य-पथों से पल-छिन
पीले सपनों के ये दाने
हुए सुनहरे
मगर हरी तुम रही, हुआ कब रूप सुनहरा
मेरी जिह्वा ने
पाई पहचान तुम्हारी
भन्सा घर से ऐसा जोड़ लिया है नाता
जिसके होने पर
घर के विरवे हँसते हैं
उसके होने से आखिर कैसे मुरझाता
तुमने तो
अपनी स्वतंत्रता कहा उसे ही
सकल जगत ने माना जिसको प्रेमिल पहरा
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