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होड़ / महेश कुमार केशरी

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<poem>
आजकल कोई किसी
से कम नहीं है
लोग रुकना नहीं
चाहते

कार पार्किंग की छोटी
सी बात लेकर
गोली चली
और सामने वाला आदमी
ढेर हो गया
बहने लगा सड़क पर
बेतहाशा लहू

छोटी- छोटी बात पर
लोग चलाने लगे हैं चाकू
और चाकू बाजी में मारे
जाने लगें हैं
निरीह लोग

अब, सड़कों पर चलने
में डर लगता है
पगडंँडियाँँ भी सुरक्षित नहीं
हैं

कल, फुटपाथ पर
घूमने निकला
बीच सड़क पर
बिल्ली के एक बच्चे
को मरा पाया

पेट बीच से बिल्कुल फटा हुआ
लहू के कतरे रोड पर बिखरे हुए

एक दिन एक कुत्ता बीच सड़क पर
मरा पड़ा था
दांँत बाहर की तरफ़ निकला हुआ

लोग किसी के पीछे चलने में
अपनी हेठी समझने लगे हैं

निकल जाना चाहतें हैं एक - दूसरे से आगे

कोई रूककर बात नहीं करता
सब चलते-चलते करते हैं

थोडा़ रुककर सुस्ताने
की आदत शायद आने वाले
समय में ख़त्म हो जायेगी

क्या अच्छा नहीं होगा
तेज़ चलने की जगह

थोडा़- रुककर सुस्ता लें
और कर लें
प्रेम की थोड़ी बातें !
</poem>
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