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|रचनाकार=अरुणिमा अरुण कमल
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<poem>
जनक ही एकमात्र जनक नहीं थे
हम भी जानकी हैं अपने जनक की
जो अपना राज पाट सँभालने में लगे रहे आजीवन
और हमें दे गए अपनी विरासत
एक ऐसी विरासत
जो बाँटने से बढ़ती है
जिसकी सुरभि
हज़ारों-लाखों साँसों में दम भरती है
और इसी सुरभि के विस्तार के लिए
अपनी भाषा, अपने साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन अपना समर्पित कर दिया है जिन्होंने
आज ऐसे सभी जनकों को हम नमन करते हैं
जो गुज़रकर भी अगली पीढ़ी में जीने का दम रखते हैं!
</poem>
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