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|रचनाकार=सुरंगमा यादव
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विचलित कर पाएगा मुझको
क्या यह पीड़ा का संसार
पीड़ाएँ बन अंतर्दृष्टि
जीवन रहीं निखार
सुमन देखकर लोभी बनना
मुझे नहीं स्वीकार
मुस्काते अधरों से ज्यादा
सजल नयन से प्यार
गहरा है करुणा का सागर
कितने हुए न पार
कुहू-कुहू में रमकर भूलूँ
कैसे करुण पुकार
दुख है अपना सच्चा साथी
सुख तो मिला उधार
तुम्हें रुठना था ही मुझसे
भाती क्यों मनुहार
प्रेम तुम्हारा कैसा था ये
जैसे हो उपकार।
</poem>