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|रचनाकार=सुरंगमा यादव
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मैं रख लूँगी मान तुम्हारा
तुम मेरा मन रख लेना
दर्द अकेले तुम मत सहना
मुझसे साझा कर लेना
मन की बात न मन में रखना
तुम चुपके से कह देना
मैं अपना सर्वस्व लुटा दूँ
नेह तनिक तुम कर लेना
देह कभी मैं बन जाऊँगी
तुम प्राणों-सा बस जाना
तुम से ही जीवन पाऊँ मैं
साँसों की लय बन आना
अनादि प्रेम की फिर अनुभूति
अन्तर्मन को दे जाना
देह बदलकर वेश नया धर
जग में हम फिर-फिर आएँ
गीत पुरातन वही प्रेम का
फिर मिलकर हम दोहराएँ
प्रीत पुनीत करे जो जग में
विधना के मन को भाता
देह से बढ़ कर होता है
मन से मन का एक नाता
</poem>