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11:06, 22 नवम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
[[Category:लम्बी कविता]]
{{KKPageNavigation
|पीछे=एक स्वप्न कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|आगे=एक स्वप्न कथा / भाग 6 / गजानन माधव मुक्तिबोध
|सारणी=एक स्वप्न कथा / गजानन माधव मुक्तिबोध
}}
::'''5'''<br><br>
मेरे प्रति उन्मुख हो स्फूर्तियाँ<br>
कहती हैं -<br>
तुम क्या हो?<br>
पहचान न पायीं, सच!<br>
क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का<br>
सौन्दर्य अनिर्वच,<br>
प्राण हैं प्रस्तर-त्वच।<br><br>
मारकर ठहाका, वे मुझे हिला देती हैं<br>
सोई हुई अग्नियाँ<br>
उँगली से हिला-डुला<br>
::पुनः जिला देती हैं।
मुझे वे दुनिया की<br>
किसी दवाई में डाल
::::गला देती हैं!!<br><br>
उनके बोल हैं कि पत्थर की बारिश है<br>
बहुत पुराने किसी<br>
अन-चुकाये क़र्ज की<br>
ख़तरनाक नालिश है<br>
फिर भी है रास्ता, रिआयत है,<br>
मेरी मुरव्वत है।<br><br>
क्षितिज के कोने पर गरजते जाने किस<br>
तेज़ आँधी-नुमा गहरे हवाले से<br>
बोलते जाते हैं स्फूर्ति-मुख।<br>
देख यों हम सबको<br>
चमचमा मंगल-ग्रह साक्षी बन जाता है<br>
पृथ्वी के रत्न-विवर में से निकली हुई<br>
बलवती जलधारा<br>
नव-नवीन मणि-समूह<br>
बहाती लिये जाय,<br>
और उस स्थिति में, रत्न-मण्डल की तीव्र दीप्ति<br>
आग लगाय लहरों में<br>
उसी तरह, स्फूर्तिमय भाषा-प्रवाह में<br>
जगमगा उठते हैं भिन्न-भिन्न मर्म-केन्द्र।<br>
सत्य-वचन,<br>
स्वप्न-दृग् कवियों के तेजस्वी उद्धरण,<br>
सम्भावी युद्धों के भव्य-क्षण-आलोडन,<br>
विराट् चित्रों में<br>
भविष्य-आस्फालन<br>
जगमगा उठता है।<br><br>
और तब हा-हा खा<br>
दुनिया का अँधेरा रोता है।<br>
ठहाका--आगामी देवों का।<br>
काले समुन्दर की अन्धकार-जल-त्वचा<br>
थरथरा उठती है!!<br>
बन्द करने की कोशिश होती है तो<br>
मन का यह दरवाज़ा<br>
करकरा उठता है;<br>
विरोध में, खुल जाता धड्ड से<br>
उसका दूर तक गूँजता धड़ाका<br>
अँधेरी रातों में।<br>
स्फूर्तियाँ<br>
कहती हैं कि<br>
मैं जो पुत्र उनका हूँ<br>
अब नहीं पहचान में आता हूँ;<br>
लौट विदेशों से<br>
अपने ही घर पर मैं इस तरह नवीन हूँ<br>
इतना अधिक मौलिक हूँ-<br>
::::असल नहीं!!<br>
मन में जो बात एक कराहती रहती है<br>
उसकी तुष्टि करने का<br>
साहस, संकल्प और बल नहीं।<br>
मुझको वे स्फूर्ति-मुख<br>
इस तरह देखते कि<br>
मानो अजीब हूँ;<br>
उन्हे छोड़ कष्टों में<br>
उन्हे त्याग दुख की खोहों में<br>
::::कहीं दूर निकल गया<br>
कि मैं जो बहा किया<br>
आन्तरिक आरोहावरोहों में,<br>
निर्णायक मुहूर्त जो कि<br>
घपले में टल गया,<br>
कि मैं ही क्यों इस तरह बदल गया!<br>
इसीलिए, मेरी ये कविताएँ<br>
भयानक हिडिम्बा हैं,<br>
वास्तव की विस्फारित प्रतिमाएँ<br>
विकृताकृति-बिम्बा हैं।<br><br>