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एक दिन / सुशांत सुप्रिय

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<poem>
एक दिन
मैंने कैलेंडर से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और अपने मन की करने लगा

एक दिन
मैंने घड़ी से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और खुद में डूब गया

एक दिन
मैंने पर्स से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और बाज़ार को अपने सपनों से
निष्कासित कर दिया

एक दिन
मैंने आईने से कहा —
आज मैं उपलब्ध नहीं हूँ
और पूरे दिन उसकी शक़्ल भी नहीं देखी

एक दिन मैंने अपनी बनाई
सारी हथकड़ियाँ तोड़ डालीं
अपनी सारी बेड़ियों से
आज़ाद हो कर जिया मैं
एक दिन
</poem>
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