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|रचनाकार=दिनेश शर्मा
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जब पाप धरा पर छाते हैं
सच धूमिल पड़ते जाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
माया का साम्राज्य फैला
अज्ञान घना ज़ब था पसरा
थी भ्रांति बहुत सारे जग में
तम से था सारा व्योम भरा
लेकर वह जन्म भरत भू पर
भटकों को राह दिखाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
लेकर आज्ञा निज जननी से
वह इक योगी हो जाता है
फिर अंतिम इच्छा पूरी कर
बेटे का वचन निभाता है
जब आर्यम्बा जनती सुत को
शिवगुरु गद गद हो जाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
जब अंतस ज्ञान हुआ ओझल
जीवन ने भी मकसद खोया
ना कोई योग विशारद था
जब भारत का कण कण रोया
मानव मन जब व्याकुल होकर
हर ओर अँधेरा पाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
होती है हानि धर्म की जब
मिटती जाती अपनी थाति
हमले हों रीत-रिवाजों पर
कैसे बचती अपनी ख्याति
ज़ब तमस भरी काली शब में
इक ज्योति कलश उठाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
घूमे कोई योगी भू पर
वेदों का सारा रस लेकर
घर घर हर मानव की खातिर
अपना सबकुछ जग को देकर
प्रभु रूप मोहिनी का धरकर
सबको सुरभोग पिलाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
वह आदि गुरु अद्वैत शिखर
वेदांती राशि पुरातन था
बस राह धर्म की पकड़ी थी
वह तो इक देव सनातन था
कर चार मठों को स्थापित वह
जब सत का पाठ पढ़ाते हैं
तब ज्ञान पुंज बन धरती पर
वह आदि शंकर आते हैं
</poem>
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