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20 अप्रैल {{KKGlobal}}
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<poem>
तुम्हारे सितम की हदें जानता हूँ,
नहीं कोई अब कैफियत माँगता हूँ।
कभी लाल नीला कभी फिर हरा सा,
हरिक रंग तेरा मैं पहचानता हूँ।
घटाएँ उमड़तीं बरसतीं नहीं क्यों,
कहो आसमाँ जानना चाहता हूँ।
वतन के सिपाही अगर थक भी जाएँ,
मिटाने अँधेरा मैं ख़ुद जागता हूँ।
हवा अब बदलने लगी है यहाँ की,
सियासत भी बदले समर ठानता हूँ।
हुई आज आलोचना बज़्म में है,
ग़ज़ल की कहन में उसे ढालता हूँ।
कोई दिल दुखाए कहो कुछ ‘अमर’ मत,
नदी प्रेम की मैं तुम्हें मानता हूँ।
</poem>