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धोने क्या बैठे
नाखून तोड़ दिया
अभी तक दर्द होता है
तुमसा भी कोई मर्द होता है?
जब भी बाहर जाते हो
कोई ना कोई चीज़ भूल आते हो
न जाने कितने पैन, टॉर्च
और चश्मे गुमा चुके हो
 
अब वो ज़माना नहीं रहा
जो चार आने के साग में
कुनबा खा ले
दो रुपये का साग तो
अकेले तुम खा जाते हो
उस वक्त क्या टोकूँ
जब थके मान्दे दफ़्तर से आते हो
 
कोई तीर नहीं मारते
जो दफ़्तर जाते हो
वोज़ एक न एक बटन तोड़ लाते हो
मैं बटन टाँकते-टाँकते
काज़ हुई जा रही हूँ
मैं ही जानती हूँ
कि कैसे निभा रही हूँ
कहती हूँ, पैंट ढीले बनवाओ
तंग पतलून सूट नहीं करतीं
किसी से भी पूछ लो
झूठ नहीँ कहती
इलैस्टिक डलवते हो
अरे, बेल्ट क्युँ नहीं लगाते हो
फिल पैंट का झंझट ही क्यों पालो
धोती पहनो ना,
जब चाहो खोल लो
और जब चाहो लगा लो
 
मैं कहती हूँ तो बुरा लगता है
बूढ़े हो चले
मगर संसार हरा लगता है
अब तो अक्ल से काम लो
राम का नाम लो
शर्म नहीं आती
रात-रात भर
बाहर झक मारते हो
 
औरत पालने को कलेजा चाहिये
गृहस्थी चलाना खेल नहीं
भेजा चहिये।"