1,429 bytes added,
10:38, 1 दिसम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक
|संग्रह=गुफ़्तगू अवाम से है / ज्ञान प्रकाश विवेक
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
उस परिन्दे ने लुटाया था ख़ज़ाना मुझको
दे गया जाते हुए अपना ठिकाना मुझको
मैं तो मामूली -सा इन्सान हूँ इस बस्ती का
जो भी उठता है, बनाता है निशाना मुझको
ज़िन्दगी ! तू मुझे मरने नहीं देगी लेकिन
मार डालेगा ये कमबख़्त ज़माना मुझको
इल्तिजा है मेरी महफ़िल के सदर से इतनी-
कुर्सियाँ कम हों तो आदर से उठाना मुझको
ज़िन्दा रखने की कोई चाल थी उसकी यारो
वो जो देता रहा दो वक़्त का खाना मुझको
आसमाँ देखना चाहूँ तो मेरा सर न उठे
मेरे ख़ालिक, कभी इतना न झुकाना मुझको.
</poem>