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:::कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।<br>:::एवं त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥२॥<br>
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:::कर्तव्य कर्मों का आचरण, ईश्वर की पूजा मान कर, <br>:::सौ वर्ष जीने की कामना है, ब्रह्म ऐसा विधान कर।<br>:::निष्काम निःस्पृह भावना से कर्म हमसे हों यथा,<br>:::कर्म बन्धन मुक्ति का, कोई अन्य मग नहीं अन्यथा॥ [२]<br><br>
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<span class="upnishad_mantra">
:::अनेजदैकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन पूर्वमर्षत।<br>:::तद्धावतो न्यानत्येति तिष्ठत तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ॥४॥<br>
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:::है ब्रह्म एक, अचल व मन की गति से भी गतिमान है, <br>:::ज्ञानस्वरूपी, आदि कारण, सृष्टि का है महान है।<br>:::स्थित स्वयं गतिमान का, करे अतिक्रमण अद्भुत महे,<br>:::अज्ञेय देवों से, वायु वर्षा, ब्रह्म से उदभुत अहे॥ [४]<br><br>
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