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::श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद् वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः ।<br>::चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥२॥<br>
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::जो मन का मन अति आदि कारण, प्राण का भी प्राण है।<br>::वाक् इन्द्रियों का वाक् है, कर्ण इन्द्रियों का कर्ण है॥<br>::चक्षु इन्द्रियों का चक्षु प्रभु, एक मात्र प्रेरक है वही।<br>::ऋत ज्ञानी जीवन्मुक्त हो, पुनि जगत में आते नहीं॥ [ २ ] <br><br>
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::यद्वाचाऽनभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।<br>::तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥४॥<br>
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::सामर्थ्य वाणी में कहाँ जो ब्रह्म विषयक कह सके। <br>::वाणी में जितनी वाणी है, किंचित न किंचित कह सके॥<br>::यह ब्रह्म तत्त्व तो वाणी से, अतिशय अतीत अतीत है।<br>::प्रेरक प्रवर्तक वाणी का, ज्ञाता है ब्रह्म, प्रतीति है॥ [ ४ ]<br><br>
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::यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।<br>::तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥६॥<br>
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::इस दृश्यमान जगत में जो भी दृश्य है दृष्टव्य हैं।<br>::दृग दृष्टि के ही विषय हैं , नहीं दृष्टि के गंतव्य हैं॥<br>::परब्रह्म प्रभु तो चक्षु इन्द्रियों से परे अति भव्य है।<br>::उसकी ही शक्ति अंश से जग दृष्टिगोचर नव्य है॥ [ ६ ] <br><br>
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::यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते ।<br>::तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥८॥<br>
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::प्रेरक प्रवर्तक शक्तिमन, प्रभु नित्य है प्राकृत नहीं। <br>::शुचि रूप उसका वास्तविक , फिर पायें हम कैसे कहीं ?<br>::प्राकृतिक प्राणों की शक्ति सीमा से परे प्रभु मर्म है।<br>::प्रिय प्राण में प्रभु प्रवृत अंश से प्रवृत जीव के कर्म हैं॥ [ ८ ] <br><br>
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