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::है जन्म मृत्यु विहीन आत्मा, कार्य कारण से परे,<br>::यह नित्य शाश्वत अज पुरातन कैसे परिभाषित करें।<br>::क्षय वृद्धिहीन है आत्मा और नाशवान शरीर है,<br>::आत्मा पुरातन अज सनातन मूल है अशरीर है॥ [ १८ ]<br><br>
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::जीवात्मा के, हृदय रूपी गुफा में, ईश्वर रहे,<br>::अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म जो है, महिम से अतिशय महे।<br>::परब्रह्म की महिमा महिम, विरले को ही द्रष्टव्य है,<br>::द्रष्टव्य हो महिमा महिम की, और यही गंतव्य है॥ [ २० ]<br><br>
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::यह क्षणिक है क्षयमाण क्षीण है, मरण धर्मा शरीर है,<br>::सब हर्ष शोक विकार मन के, मोह के प्राचीर हैं।<br>::अति धीर जन प्रज्ञा विवेकी, शोक न किंचित करें,<br>::सर्वज्ञ ब्रह्म को जान कर, वे मोह न सिंचित करें॥ [ २२ ]<br><br>
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::ये बुद्धि मन और इन्द्रियों, जिसके नहीं आधीन हैं,<br>::कटु वृतिमय ज्ञानाभिमानी भी, प्रभु रस हीन हैं।<br>::है शांत मन जिनका नहीं, और आचरण न ही शुद्ध है,<br>::नहीं प्रभु कृपा उन पर रहे, वह चाहे कितना प्रबुद्ध है॥ [ २४ ]<br><br>
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