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|रचनाकार=मृदुल कीर्ति}}
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<span class="mantra_translation">
अति-अति प्रथम यह जीव गर्भ में, वीर्य का ही रूप है,<br>
धारक पिता के स्वरुप गर्भ में, वीर्य का भी स्वरुप है,<br>
यह पुरूष तन में जो वीर्य है, यह सकल अंगों का सार है,<br>
आत्म संचय फ़िर नारी सिंचन, प्रथम जन्म आधार है॥ [ १ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
वह गर्भ नारी के स्वयम अपने , अंगों के ही समान हैं,<br>
अतः धारक नारी को किसी पीडा का नहीं भान है.<br>
पति अंश को गर्भस्थ अंगीकार करती नारी है,<br>
ऐसी व्यवस्था पर व्यवस्थित सृष्टि रचना सारी है॥ [ २ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
करे गर्भ धारण प्रसव के ही पूर्व तक नारी तथा,<br>
जन्मांतरण शिशु के पिता , करें संस्कार की है प्रथा<br>
गर्भान्तरण नारी का पोषण श्रेष्ठ और विशेष हो ,<br>
अथ जीव का जन्मांतरण ही द्वितीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ३ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
करे गर्भ धारण प्रसव के ही पूर्व तक नारी तथा,<br>
जन्मांतरण शिशु के पिता , करें संस्कार की है प्रथा<br>
गर्भान्तरण नारी का पोषण श्रेष्ठ और विशेष हो ,<br>
अथ जीव का जन्मांतरण ही द्वितीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ४ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
ऋषि वाम देव को गर्भ में ही तत्व ज्ञान का ज्ञान था,<br>
जन्म मृत्यु शरीर के ही विकार हैं यह भान था.<br>
अब तत्व ज्ञान से मैं शरीरों की अहंता से मुक्त हूँ ,<br>
अब जन्म मृत्यु शरीर हीन हूँ , बाज सम उन्मुक्त हूँ॥ [ ५ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
ऋषि वाम देव को गर्भ में ही तत्व ज्ञान का ज्ञान था,<br>
जन्म मृत्यु शरीर के ही विकार हैं यह भान था.<br>
अब तत्व ज्ञान से मैं शरीरों की अहंता से मुक्त हूँ ,<br>
अब जन्म मृत्यु शरीर हीन हूँ , बाज सम उन्मुक्त हूँ॥ [ ६ ]<br><br>
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