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हमारा देश / अज्ञेय
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05:04, 14 दिसम्बर 2008
उमगते सुर में
हमारी साधना का रस बरसता है
इन्हीं के मर्म को
अजान
अनजान
शहरों की ढँकी लोलुप
विषैली वासना का साँप डँसता है
अनिल जनविजय
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