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हमारा देश / अज्ञेय
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05:05, 14 दिसम्बर 2008
<Poem>
इन्हीं तृण-फूस-छप्पर से
ढंके ढुलमुल
गंवारू
गँवारू
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है
अनिल जनविजय
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