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|रचनाकार=श्याम सखा 'श्याम'
}}
<Poem>
इक हमीं तो हैं नही बरबाद तेरे शहर में
हैं परिन्दे भी नहीं आजाद तेरे शहर में

हर तरफ बौने ही दिख रहें हैं हमको तो
क्या नही कोई भी शमशाद तेरे शहर में

गीत कोई गाये या कोई सुनाये अब ग़ज़ल
अब नहीं कहता कोई इरशाद तेरे शहर में

यूं भुलाना तुमने चाहा है हमें जब भी कभी
क्या नही ग़म की बढ़ी तादाद तेरे शहर में

झुग्गियां तक भी हमारी तो जलादीं हैं गई
बस मिली हमको यही इमदाद तेरे शहर में

गूँगे बहरे हाकिमों की बज़्म में है क्या कोई
बस मिली हमको यही इमदाद तेरे शहर में

हैं सभी लुटते सरेबाजार अक्सर इस जगह
हम अकेले तो नहीं अपवाद तेरे शहर में

ढूंढ़्ने पर भी मिला कोई ठिकाना जब न ‘श्याम’
आगये तब करने दिल आबाद तेरे शहर में
</poem>