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खुले रहे पहाड़ / तुलसी रमण

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|रचनाकार=तुलसी रमण
|संग्रह=ढलान पर आदमी / तुलसी रमण
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आहिस्ता-आहिस्ता
पहाड़ खुल रहे हैं
कुछ ऐसे भी खुल रहे पहाड़
अंतरतम तक
अभी कल ही
मेरी सम्पूर्णायु दादी के निधन पर
जुट आया था सारा गांव-परगना
धर्म की लकड़ी से
चिनकर अपने हिस्से की चिता
कर डाला था हाथों-हाथ
अंतिम संस्कार
आज मेरी
आधी उम्र मां की लाश
रोते-बिलखते परिवार के बीच
घर के एक कोने में पड़ी है
और लोग
आत्मा अमर है की मुद्रा मे
सिर पर बैलेट बाक्स लिए
बहसते गुजर रहे हैं
मेरे आंगन से
अभी कल ही
बलिया के बेटे के पांव में
चुभ गया था काँटा
और सब गांवियों के पांव
समा गए थे उसके पैर में
चेहरों पर उतर आया था दर्द
आज गांव की जवान बेटी
शोभा की लाश
कुएं के बगल में खुली पड़ी है
और हरेक पनिहारिन
चुपचाप भर लायी है पानी

अभी कल ही
रास्ते में मिली सूई
देवता के द्वार पर
छोड़ आया था मोनू
आज खजाने के साथ ही
देवता को बेच कर
पारंपरिक पुजारी
उस भक्तिन के साथ
शहर में गायब है
कुछ ऐसे भी खुल रहे पहाड़
आहिस्ता-आहिस्ता खुलते जा रहे
अंतरतम तक
</poem>
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