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17:36, 18 जनवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
}}
<poem>
एक आदमी कुँए की जगत पर
पाँव टेके खड़ा है
कितने बड़े एकान्त में
एक आदमी अकेला
ताज़ी बिखरी हुई
काली मिट्टी के खेतों के बीच
बादलों की रंगबाज़ी भांपता
अनन्त हरियाली को
दोनों आँखों की ओक से पीता हुआ
ढोर डंगर एक भी नही
एक भी उड़ता परिन्दा तक नहीं
आकाश में कितने भारी भरकम बादल
और सिर्फ़ वही एक आदमी
बीच बीच में अँगुलियों से अपनी
मूंछों को जाँचता हुआ...
मैंने ट्रेन की खिड़की से इतना ही देखा
और दहशत से भर गया
उसने सिर्फ़ एक उड़ती से नज़र डाली
और बादलों की रंगबाज़ी में उलझ गयी
जैसे उसके अनन्त विस्तार में से
एक मक्खी उड़ गई!
</poem>