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भय / मोहन साहिल

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<poem>
आओ चले उस गाँव
जहाँ झड़ते अनायास
पके फल - डाल-डाल छाँव- छाँव
चलो जीयें उस पेड़ की छाँव
जिसका वह एक फल
‘झाँणों- मनसा’ ने
चखा था आधा-आधा
रह गए थे देखते
छूट गया था बीज
उसी पेड़ की छाँव
बीज -दर –बीज
उगते रहे किनते ही शाखी
झड़ते रहे कितने फल
स्तब्ध रहा पहाड़ों का
परस्पर टकराना
थक गया
गाँव से गाँव सुलगना
गूँजता रहा ‘पवाड़ा’ हर घाटी,गाँव-गाँव

काया हो जाओ
तुम उस फल की

बीज हो जाता हूँ मैं
और उगते रहें बार-बार
घाटी-घाटी गाँव-गाँव
</poem>
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