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जागते रहो / मोहन साहिल

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<Poem>
हमसे कहकर-जागते रहो
वे चोरों के गिरोह में शामिल हो गए
हमने देखा जागते हुए
खुद को लुटते हुए
वे लूट ले गए
आसपास के पेड़, हवा और सुगंध

खुली आँखों के बावजूद
गिरे हम गड्ढों में
और वे हमपर पुल बनाकर गुज़्र गए
उनके निर्देशानुसार हमने दबा दी
अपने भीतर की आवाज़ें
जो झिंझोड़ रहीं थीं हमें
कह रही थीं कि
लुटेरों से अट चुकी है धरती
एक अँधेरा फैल रहा है चारों ओर
बावजूद जागने के नजर नहीं आएगा कुछ
मगर हम आँखें फाड़े जागते रहे निष्क्रिय
इसी मुद्रा में थक गए एक दिन हम
और सबकुछ छोड़-छाड़कर सो गए एक दिन
भले मानुषों की दुनिया का
वह एक काला दिन था।
</poem>
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