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|रचनाकार=धूमिल
|संग्रह =सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र / धूमिल
}} <poem>
अपनी अध्यापिका का किताबी चेहरा पहन कर
 
खड़ी हो जाएगी वह ख़ूबसूरत शोख़ लड़की
 
मगर अपनी आँखें
 
वह छिपा नहीं पाएगी जहाँ बसन्त दूध के दाने फेंक गया है ।
 
आज और अभी तक
 
नन्ही गौरैया के पंखहीन बच्चों का घोंसला है
 
उसका चेहरा और कल
 
या शायद इससे कुछ देर पहले
 
यह शहर उस शोख और खिंचे हुए
 
चेहरे को
 
घर में बदल दे । मेरी पहली दस्तक से थोड़ी देर
 
पहले
 
तब मेरा क्या होगा ?
 
मुझे डर है
 
मैं वापस चला आऊंगा । अपनी कविताओं के अंधेरे में
 
चुपचाप वापस चला जाऊंगा ।
 
बिल्कुल नाकाम होंठों पर एक वही पद-व्याख्या
 
बार-बार लिंग, वचन, कारक या संज्ञा, सर्वनाम
 
या, शायद, यह सब नहीं होगा । अपनी नाबालिग आँखों से
 
वह सिर्फ़ इतना करेगी कि हम दोनों के बीच
 
काठ या सपना रख देगी । और पूछेगी
 
उसकी व्याख्या । क़िताब को परे सरकाती हुई उसकी आँख निश्छल! निष्पाप!!
 
मगर आँखें शहर नहीं हैं ऎ लड़की !
 
पानी में बसी हुई कच्चे इरादों की एक भरी-पूरी दुनिया है
 
आँखें ! देह की इबारत के खुले हुए शब्दकोष ! जिसे पढ़ते हैं ।
 
लेकिन यह देखो--
 
हम अपने सम्बन्धों में इस तरह पिट चुके हैं
 
जैसे एक ग़लत मात्रा ने
 
शब्दों को पीट दिया है ।
</poem>
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