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20:01, 22 जनवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अनूप सेठी
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प्लेटफार्म पर भीड़ में से प्रकट हुई अचानक
मानो देह में नहीं थी वह
गोद में था बाल गोपाल
बीच में से गुजरी किसी परफ्यूम की सुगंध
लकदक युवतियां दूर जा चुकी थीं
उस पार यह चेहरा तपा हुआ
पसीने से चुहचुहाता थोड़ा सख्त थोड़ा गुस्सैल
कष्ट में दिखती थी होशमँद पर खुशकिस्मत नहीं
एक लहर उठी पसीने सब्जी और किसी पकवान की गंध
दफ्तर से लौटी गृहणियां
पुल सबसे पहले पार कर जाना चाहती थीं
ट्रेन से उतरी थी या चढ़ने से रह गई थी
बहुत दिन से थकी हुई थी स्त्री बहुत
चबूतरा जो बना है प्लेटफार्म नंबर छ: पर
निढाल सी पटक दी उसने अपनी देह
बालक का सिर टकराते टकराते बचा
थामने को बढ़ा जैसे मैं इस
करुणामय बाल बुद्ध को
बीच में दीवार बन खड़ी हो गई
उस देह की भभकती दुर्गंध
हाथ-बाँह में जा घुसा
फेफड़ों में कहीं जा छुपा
पैर सरपट भागे
आंखें चेहरे से बाहर निकल ढूँढने लगीं
पहचाने हुए चेहरे।
2000
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