[[Category:कविता]]
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मम उरज प्रान्त पर शांत बाल सा रख कपोल सुधि करो प्राण कहते थे किए शयन तुम क्यों बात-बात में हंसती हो ।सहलाती मसृण पाणि कुंतल अर्धोन्मीलित जलजाभ नयन किस कलुषित कंचन को मेरे निज हास्य-निकष पर कसती हो ।कहती थी "प्राण! काल कवलित हो जे न प्रणय मिलन घातें।तुम होड़ लगा प्रिया उपवन की सुरभित कलियाँ चुन लेते थे।निस्पंद शून्य में खो न जाँय ये रससखियों से होती मदन-रभसरहस-कातर रातें बातें चुपके सुन लेते थे ।वर्जन की वे अंगुलियाँ आज भी सहलाते थे मृदु करतल से रख उर पर मेरे अधर दबा जातीं मृदुल चरण ।वह छवि न भूलती धरे चिबुक नभप्रिय-ध्रुवपाणि-अरुंधती दिखलाती।पार्श्व से झुका स्कंध रख देते आनन पर आनन ।लीला सहचर धंस डूब मरे हा ! सुधि लो विकला जाय कहाँ बावरिया बरसाने वाली -क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन वन के वनमाली ॥२९॥ वनमाली॥ ३१॥
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