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अष्टावक्र उवाचः
प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष , तज विषयों को ,जैसे विष तजें ,सन्तोष ,करूणा सत, क्षमा , पीयूष वत नित -नित भजें . [ २ ]
न ही वायु , जल , अग्नि , धरा और न ही तू आकाश है , मुक्ति हेतु साक्ष्य तू , चैतन्य रूप प्रकाश है . [ ३ ]
यदि पृथक करके देह भाव को , देही में आवास होतब तू अभी सुख शांति , बन्धन मुक्त भव , विश्वास हो .[ ४ ]
वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है ,आकार हीन असंग केवल , साक्ष्य भाव प्रबंध है . [ ५ ]
सुख दुःख धर्म - अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं ,
कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं . [ ६ ]
सर्वस्व दृष्टा एक तू , और सर्वदा उन्मुक्त है ,
यदि अन्य को दृष्टा कहे ,भ्रम , तू ही बन्धन युक्त है . [ ७ ]
तू अहम् रुपी सर्प दंषित , कह रहा कर्ता मैं ही ,विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा , कर्ता नहीं . [ ८ ]
मैं सुध , बुद्ध, प्रबुद्ध , चेतन , ज्ञानमय चैतन्य हूँ ,अज्ञान रुपी वन जला कर , ज्ञान से मैं धन्य हूँ . [९ ]
सब जगत कल्पित असत ,रज्जु मैं सर्प का आभास हैइस बोध का कारण कि तुझमें , भ्रम का ही वास है .[१०]