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{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह = अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
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<poem>
कुछ त्यागता कुछ ग्रहण करता, मन दुखित हर्षित कभी,
यही भाव मन के विकार , बंधन युक्त हैं, बंधित सभी.--------१

न ही ग्रहण, न ही त्याग , दुःख से परे मन मोक्ष है,
एक रस मन की अवस्था, सर्वदा निरपेक्ष है.-----२

मन लिप्त होता जब कहीं, तो बंध बंधन हेतु है,
निर्लिप्त होता जब वही मन , मोक्ष का मन सेतु है.-----३

"मैं" भाव ही बंधन महत, " मैं " का हनन ही मोक्ष है,
त्याग और ग्रहण से हो परे मन, तब मनन निरपेक्ष है.----------४
</poem>