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{{KKRachna
|रचनाकार=मृदुल कीर्ति
|संग्रह = अष्टावक्र गीता / मृदुल कीर्ति
}}
<poem>
'''अष्टावक्र उवाचः'''
भावों विभावों के स्वभावों से निःसृत जो विकार हैं
जिसे ज्ञात, क्लेश विहीन सुखमय, शान्ति रस संचार है..-----१
सर्व दृष्टा ईश निश्चय, दूसरा कोई नहीं,
जिसे ज्ञात वह अति शांत, उसकी कामना कोई नहीं.------२
संपत्ति और आपत्ति निश्चय, दैव योग विधान हैं,
संतुष्ट वांछा शोकहीन हैं, जिनको इसका ज्ञान.-------३
जीवन मरण सुख और दुःख दैवीय हैं जो जानता,
भाव कर्ता शून्य होकर, कर्म विधि पहचानता.-------४
चिंता से दुःख है अन्यथा कुछ भी नहीं जो जानते,
अन्तः समाहित शांत वे सब ईश इच्छा मानते.------५
न मैं देह, न ही देह मेरी, नित्य बोध स्वरुप हूँ,
कृत - अकृत का विस्मरण और मैं विदेह अरूप हूँ.-----६
ब्रह्म से पर्यंत तृण, बस एक मैं ही हूँ यथा,
निर्विकल्पी शांत, अज्ञ है लाभ हानि की प्रथा.-----७
आश्चर्मय यद्यपि जगत, मिथ्या तथापि क्षणिक है,
बोधस्वरूपी मर्म ज्ञाता, शांत लिप्त न तनिक है.------८
</poem>