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कभी-कभी / केशव

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|रचनाकार=केशव
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कभी-कभी आदमी
अपने कद से ही
डर जाता है
अपने किए के लिए
बिन मरे ही मर जाता है
यह इसलिए होता है
कि वह अपने कद से
छोटा होकर
दूसरे के कद में आँख मूंद
लगा देता है छलांग
और अपने दुख से
निजात पाने के लिए
दूसरे के सुख में
लगा देता है सेंध
और कभी-कभी
अपने कद से
बड़ा भी हो जाता है आदमी
कभी-कभी डूबकर भी
तिर आता है आदमी
यह इसलिए होता है
कि अपने लिए जीने से पहले
दूसरों के लिए जीने का
सुख पा लेता है वह
दूसरे के दुख से गुज़र कर
अपने दुख की थाह पा लेता है वह।
</poem>
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