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21:55, 5 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
हम सुनी सुनाई पर
यकीन नहीं करते
कहते हैं सभी फिर भी
यकीन करते हैं
सुनी-सुनाई पर ही
सुन-सुनकर
अनसुना करना
हमारी आदत है
क्या इसीलिए होते हैं कान !
कान न होते
तो भी क्या सुनते हम
सुनकर कैसे
अनसुना करते हम।
</poem>