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{{KKRachna

|रचनाकार=केशव
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बादलों के होते हुए
चिंता नहीं है धरती को
अपनी कोख़ में हल चलने की

वृक्षों के होते
क्षरित होने
जर्रा-जर्रा
गटरों में बह जाने की

मौसमों के होते
पकने
और पककर
आदमी की भूख के लिए
बीज बन जाने की

सचमुच
धरती को चिंता नहीं है
धरती होने की
अपने सुख में
सेंध लगने की
अपने धरती ही बने रहने की।
</poem>
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