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19:26, 6 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
दफ्तर झलकता
हमारी हर भंगिमा से
दफ्तर चलता
हर यात्रा में हमारे साथ
दफ्तर बहता
हमारी रगों में
दफ्तर करता
घर से दूर
दफ्तर को हम
ओढ़ने-बिछाने को मजबूर!
दफ्तर शादी-ब्याह में
दफ्तर मरने-जीने में
दफ्तर की घुसपैठ
जीवन के रंगों में
दफ्तर के बस में हम
फिर भी हमारे बस में नहीं दफ्तर
दफ्तर ही जीवन का सच
बाकी सब झूठ
आसान है दफ्तर में छुट्टी
मुश्किल है दफ्तर से मुक्ति।
</poem>