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22:40, 6 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा
}}
<poem>
घर का दरवाजा खुलते ही
दबोच लेती है
गली
बिना किसी तैयारी के
भीड़ हो जाती हूँ मैं
पीठ होते ही
बंद होती कुंडी की तरह
पराया हो जाना
सांकल लगा देता है भीतर
उस एक क्षण
पूरे अस्तित्व की
एक ही ज़रूरत होती है
दरवाज़े और गली के बीच
एक आँगन
घर और सँसार के बीच
खुली ज़मीन
खुले आकाश का
टुकड़ा भर विस्तार
जहाँ होना
दोनों जगह होने का आश्वासन है
</poem>