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हरे कोलाज / रेखा

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<poem>
ओटकर हाथों से
आँखें मेरी
पूछा उसने
बोलो! कौन हूँ मैं?

कहा मैंने- तुम हो ज़िदगी

खिलखिलाहट-सी कोई
गुदगुदा गई पोर-पोर
चुंधियाई आंखें मल-मलकर देखा
इस ओर उस छोर
कोई नहीं था कहीं
बस दूर बहुत दूर
हरी चरागाहें

कई-कई बार
खोजी है हरी चरागाहों में
खोई हुई वह
पारे-सी खिलखिलाहट
हर बार अपनी कोशिश
मुट्ठियों में भींच लाई हूँ
इस कैनवास
तक जहाँ-तहाँ छाप दी हैं
हरी हथेलियाँ

बरसों बीते आज भी देख रही हूँ
ईज़ल पर टंगा
एक हरा-सा कोलाज़
इधर अधूरा-उधर अधूरा
जो नहीं बन सकेगा कभी
एक लहराती हरियाली

कितना निरर्थक हो गया है
मुट्ठी-भर हथेलियों से
करना रंगोली

क्यों बन नहीं पाता आदमी
दो हाथ ज़मीन खुद ही
जिसके बदरंग सीने से
जड़ें खोज लाएँगी खुद ही
एक ज़िन्दा हरियाली।
</poem>
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