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शब्द / केशव

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शब्द अगर
कह सकते
अनकहा
तो रोज़-रोज़ 'सिसिफस' की तरह
न चढ़ना पड़ता
यह जीवन का पहाड़
रोज़-रोज़ न मुरझाता
चट्टान के सीने पर
खिला फूल
बटोरनी न पड़ती
रोज़-रोज़
खिड़की के काँच से कटी
धूप की
थिगलियां
दिन-ब-दिन
फीकी न पड़ती जाती
फ्रेम में जड़े होठों की मुस्कान

सुननी न पड़ती
छत की टीन को
प&जों से नोंचती
चिड़िया की मार्मिक पुकार
अपनी आर्तनाद में
डूबी संध्या
चील क्ई तरह
आ बैठती
मेरे कंधों पर
तब
उम्मीद भी होती
पहाड़ की तीखी चोटी की तरह
सूरज की छाती के आर-पार

शब्द क्यों झड़ जाते हैं
सूखे पत्तों की तरह
कहीं पहुंचने से पहले
या फिर
पहुंचकर भी
उगे से क्यों
रह जाते हैं।
</poem>
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