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12:27, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
वह
जितना-जितना बुनती है
उतना-उतना उधेड़ देती है
उसके जीवन की यही
उधेड़बुन
उस छत के नीचे रहती
वह गुज़ार रही
एक-एक दिन
गिन-गिन
उसका सपना था
एक घर
मकान नहीं
घर के लिए उसने
छोड़ा घर
घर उसके सपने से ग़ायब
घर खूबसूरत होता होता है
या सपना
कभी-कभी वह
दोनों में फर्क नहीं कर पाती
फिर भी
इतना ज़रूर चाहती है वह
दोनो में से एक तो रहे
घर रहे न रहे
घर का सपना ज़रूर रहे
उसकी नींदों में
जिसके
खूंटे से बंधी वह
मकान में भी
वह खूंटी पर टंगा
जीवन ग़ुज़ार सकती है
क्योंकि वह मानती है
गिरेगी बिजली
तो मकान पर गिरेगी
सपने पर नहीं गिरेगी कभी।
</poem>