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13:36, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=केशव
|संग्रह=|संग्रह=धरती होने का सुख / केशव
}}
<poem>
मैं डूबता हूँ
फिर-फिर
उगने के लिए
कोई डूबकर
न उबरे मेरे साथ
तो मेरा क्या कुसूर
मैं
न धरती से दूर
न आसमान से
कोई गर मुझसे दूर
तो मेरा क्या कुसूर
बेशक
यह रोशनी
नहीं मेरी अपनी
जिसके सहारे
मैं करता हूँ पार
बस्तियाँ
जंगल
पहाड़
समुंद्र
कोई मेरी तरह न बन सके
दूसरों के लिए रोशनी
तो मेरा क्या कुसूर
यों तो हर कोई रहता
मेरे लौटने का मुंतज़िर
फिर भी मेरे लौटने
से पहले
डाल दे कोई हथियार
तो मेरा क्या कुसूर
मैं दिन हूँ
उजाले की जुस्तजू
मेरा धर्म
कोई उजाले में रहकर भी
करे अँधेरे की जुस्तजू
तो मेरा क्या कुसूर।
</poem>