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18:55, 7 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रेखा
|संग्रह=|संग्रह=चिन्दी-चिन्दी सुख / रेखा
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<poem>
हित चिंतक थे वे
कहा जिन्होंने-
सारा सोच
किसी सजावटी टोपी की तरह
पहन लो
ताकि सुविधा रहे
कभी भी उतार कर रख देने की
या अवसर पड़ने पर
उठाकर पहन पाने की
भूल तुमसे हुई बंधु!
मैंने भी देखा है
दिन-ब-दिन बढ़ता
टोपी से तुम्हारा मोह
जब भी दोस्तों को
आइने की तरह
देखा तुमने
समवेत स्वर से सुना यही-
खूब फबती है
तुम पर यह टोपी
फिर धीरे-धीरे भूल गये
नंगे सिर पैदा हुए थे तुम
</poem>