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06:14, 12 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अविनाश
|संग्रह=
}}
<Poem>सर से पानी सरक रहा है आंखों भर अंधेरा
उम्मीदों की सांस बची है होगा कभी सबेरा
दुर्दिन में है देष षहर सहमे सहमे हैं
रोज़ रोज़ कई वारदात कोई न कोई बखेड़ा
पूरी रात अगोर रहे थे खाली पगडंडी
सुबह हुई पर अब भी है सन्नाटे का घेरा
सबके चेहरे पर खामोषी की मोटी चादर
अब भी पूरी बस्ती पर है गुंडों का पहरा
भूख बड़े सह लेंगे, बच्चे रोएंगे रोटी रोटी
प्यास लगी तो मांगेंगे पानी कतरा कतरा
अब तो चार क़दम भर थामें हाथ पड़ोसी का
जलते हुए गांव में साथी क्या तेरा क्या मेरा</poem>