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21:26, 17 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=सुदर्शन वशिष्ठ
|संग्रह=जो देख रहा हूँ / सुदर्शन वशिष्ठ
}}
<poem>
ऐसा लगता है
हमदम मेरा आ रहा है
बेखटके।
ऐसा लगता है
सड़कों पर मुस्टंडे पहरा दे रहे हैं
दीवारों की जगह शीशे लगे हैं
ऐसा लगता है
सरकार नाम की कोई चीज़ नहीं है
गुंडे और लफंगे चला रहे हैं शासन
ऐसा लगता है
समाज में कोई गम्भीर बीमारी है
जो बैठी है भीतर
आतंकवादी की तरह
ऐसा लगता है
युद्ध होगा
दागी जाएंगी मिसाइलें
उन ठिकानों पर
जो युद्ध में शामिल नहीं।
ऐसा भी नहीं लगता
कि सभी हो गये हो बेईमान
सभी हों चोर-उचक्के
कहीं ईमान भी बचा होगा
बर्फ़ में दबी आग की मानिंद।
सदा जीत हो बुराई की
ऐसा भी नहीं है
तभी तो कभी इंतजार रहता है
कि हमदम मेरा आ रहा है।
</poem>