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08:48, 18 फ़रवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आग्नेय
|संग्रह=मेरे बाद मेरा घर / आग्नेय
}}
<Poem>
उसने कहा :
तुम पृथ्वी का नमक बनो
वह हाड़-माँस का पुतला बना रहा
किसी ने सुई की नोंक चुभा दी
करता रहा वह अरण्य-रुदन
काल-रात्रि के भय से।
किसी ने गुदगुदा दिया
खिलखिलता रहा नंदन-वन जैसा।
कभी किसी ने बैठा दिया रत्न-जड़ित सिंहासन पर
अपनी बत्तीसी दिखा अकड़ गया कंकाल-सा
किसी ने गिरा दिया, रौंद दिया गया चींटियो-सा।
उसने फिर कहा :
तुम बन नहीं सके
किसी के भोजन का स्वाद।
अब जलते रहो अनन्त काल तक
दावानल में
जलता है जैसा सूर्य अनादि काल से।
</poem>