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19:07, 12 मार्च 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=पॉल एल्युआर
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<poem>
उस दिन की दोपहर
चंचल हो लहराती है
समुद्र लहराता है चंचल हो
चंचल हो रेत भी लहराती है
हम प्रशंसा करते हैं
वस्तुओं के क्रम की
पत्थरों के
रोशनी के क्रम की
पल प्रति पल की
मगर वह छाया
मिटती जा रही थी
छटती जा रही थी
वह उदासी
यहाँ
अभिजात्य सी उतरती है
आकाश से शाम
बुझती हुई आग में
सब दुबकते जा रहे हैं
शाम
तू सो सकती है समुद्र में
पहले जैसे
वहाँ तनिक भी रोशनी नहीं है।
</poem>
'''मूल फ़्रांसिसी से अनुवाद : हेमन्त जोशी